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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * निज दर्शन बस श्रेष्ठ है, अन्य न किंचित् मान । हे योगी ! शिवहेतु यह, निश्चय से तु जान ।।२६४।। (श्री योगसार, श्री योगीन्दु देव, गाथा १५ ) * शास्त्रपाढी भी मूर्ख हे, जो निजतत्व अजान। इस कारण ये जीव अरे ! पावे नहीं निर्वान ।।२६५।। (श्री योगसार, श्री योगीन्दु देव, गाथा ५३ ) मन इन्द्रिय से दूर हो, क्या पूछे बहु बात। राग प्रसार निवारते, सहज स्वरूप उत्पाद।।२६६।। (श्री योगसार, श्री योगीन्दु देव, गाथा ५४ ) * जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होने वाले कोलाहल से विमुक्त है, जो नय और अनय के समूह से दूर होने पर भी योगियों को गोचर है, जो सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परम दूर है, ऐसा यह अनघ - चैतन्यमय सहजतत्व अत्यन्त जयवन्त है ।। २६७।। (श्री योगसार जी, पद्मप्रभमलधारिदेव, कलश १५६ ) * जो अक्षय अंतरंग गुणमणियों का समूह है, जिसने सदा विशदविशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्ध भावरूपी अमृत के समुद्र में पापकलंको को धो डाला है तथा जिसने इन्द्रियसमूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा अंधकारदशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।। २६८ ।। ( श्री नियमसार जी, पद्मप्रभमलधारिदेव, कलश १६३ टीका :- यहाँ (इस गाथा में ) समाधि का लक्षण ( अर्थात् स्वरूप ) कहा है I समस्त इन्द्रियों के व्यापार का परित्याग सो संयम है। निज आत्मा १९५ * परमात्मा कहते हैं - हमारे लक्ष से दुर्गति होगी * Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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