SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमतत्व का परिज्ञान (-जानना) सो ज्ञान है। (२) भगवान परमात्मा के सुखाभिलाषी जीव को शुद्ध अन्तः तत्व के विलास का जन्म-भूमिस्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होने वाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। (३) निश्चय ज्ञान दर्शनात्मक कारणपरमात्मा में अविचल स्थिति (-निश्चल रूप से लीन रहना) ही चारित्र है। यह ज्ञान दर्शन चारित्र स्वरूप नियम निर्वाण का कारण हैं। उस 'नियम' शब्द को विपरीत के परिहार हेतु 'सार' शब्द जोड़ा गया है।।२६०।।। (श्री नियमसार गाथा ३ की टीका, श्री पद्मप्रभमलधारी देव) * उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है__ अन्वय सहित विशेषार्थ-( ते अक्खा) वे प्रसिद्ध पाँचों इन्द्रियाँ ( अप्पणो) आत्मा की अर्थात् विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव-धारी आत्मा की (सहावो णेव भणिदा) स्वभाव रूप निश्चय से नहीं कहीं गई हैं क्योंकि उनकी उत्पत्ति भिन्न पदार्थ से हुई है (त्तिपरं दव्वं) इसलिये वे परद्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्यमयी हैं (तेहि उबलवं) उन इन्द्रियों के द्वारा जाना हुआ उन्ही के विषय योग्य पदार्थ सो (अप्पणो पच्चक्खं कहं होदि) आत्मा के प्रत्यक्ष किस तरह हो सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं हो सकता है। जैसे पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा के स्वरूप नहीं है ऐसे ही नाना मनोरथों के करने में यह बात कहने योग्य है 'मैं कहने वाला हूँ' इस तरह नाना विकल्पों के जाल को बनाने वाला जो मन है वह भी इन्द्रिय ज्ञान की तरह निश्चय से परोक्ष ही है, ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो कहते हैं-सर्व पदार्थों को एक साथ अखण्ड रूप से प्रकाश करने वाले परम *इन्द्रियज्ञान आत्म अनुभव कराने में असमर्थ है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy