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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है (प्रत्यक्ष रूप से ) आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूप से अवश्य भिन्न सिद्ध होगा।।२५५ ।। (श्री नियमसार, कलश २८६ , श्री पद्मप्रभमलधारी देव) * और इसी प्रकार ( अन्यत्र गाथा द्वारा) कहा है कि-(गाथार्थ) ज्ञान जीव से अभिन्न है इसलिये वह आत्मा को जानता है; यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह जीव से भिन्न सिद्ध होगा।।२५६ ।। (श्री नियमसार, कलश २८६ के बाद) * ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिये आत्मा आत्मा को जानता है; यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो आत्मा से व्यतिरिक्त ( पृथक् ) सिद्ध हो।।२५७।। (श्री नियमसार, गाथा १७०, श्री कुंदकुंदाचार्य जी) * इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी के नहीं होता, ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिए अज्ञानमय भाव-इच्छा के अभाव होने से ज्ञानी अधर्म को नहीं चाहता; इसलिए ज्ञानी के अधर्म का परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव के कारण यह (ज्ञानी) अधर्म का केवल ज्ञायक ही है। इसी प्रकार गाथा में 'अधर्म' शब्द बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष , क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन-यह सोलह शब्द रखकर, सोलह गाथा सूत्र व्याख्यान रूप करना और इस उपदेश से दूसरे भी विचार करना चाहिए। इस प्रकार इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसके १११ * मैं ज्ञायक और छह द्रव्य ज्ञेय वह भ्रांति है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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