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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है निर्वृताः ] पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न ( रचित) है।।१७२ ।। (श्री प्रवचनसार जी १४७ गाथा, श्री कुंदकुंदाचार्य जी) * टीका :- (व्युत्पत्ति के अनुसार ) जो प्राणसामान्य से जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है। इस प्रकार (प्राणसामान्य) अनादि संतानरूप (प्रवाहरूप) से प्रवर्तमान होने से ( संसार दशा में) त्रिकाल स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है ही, तथापि वह उसका स्वभाव नहीं है। क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य से रचित है।।१७३।। (श्री प्रवचनसार गाथा, १४७ की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य) * भावार्थ :- यद्यपि निश्चय से जीव सदा ही भावप्राण से जीता है, तथापि संसार दशा में व्यवहार से उसे व्यवहारजीवत्व के कारणभूत इन्द्रियादि द्रव्यप्राणों से जीवित कहा जाता है। ऐसा होने पर भी वे द्रव्यप्राण आत्मा का स्वरूप किंचित् मात्र नहीं हैं, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्य से निर्मित हैं।।१७४।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १४७ का भावार्थ) * अब , प्राणों की पौद्गलिकता सिद्ध करते हैं : अन्वयार्थ :- [ मोहादिकैः कर्मभिः ] मोहादिक कर्मों से [ बद्धः ] बँधा हुआ होने से [ जीव: ] जीव [प्राणनिबद्धः ] प्राणों से संयुक्त होता हुआ [कर्मफलं उप जानः ] कर्मफल को भोगता हुआ [ अन्यैः कर्मभिः ] अन्य कर्मों से [ बध्यते ] बंधता है।।१७५ ।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा १४८, श्री कुंदकुंदाचार्य जी) * टीका :- (१) मोहादिक पौद्गलिक कर्मों से बँधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है, और (२) प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौद्गलिक कर्मफल को ( मोही रागी द्वेषी जीव मोह रागद्वेषपूर्वक ) भोगता *ज्ञानी ऐसा मानता है कि - मैं मन से छह द्रव्य को नहीं जानता हूँ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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