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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ( वीतराग ) मुनि का नहीं होता है । भावार्थ :- उपर्युक्त यह कथन स्वानुभव से भी सिद्ध होता है, कारण कि- जैसा रागी का ज्ञान चंचल रहता है वैसा वीतरागी मुनि का नहीं रहता है। अन्वयार्थ :- बुद्धिपूर्वक राग क्षायोपशमिक ज्ञान के साथ अविनाभाव संबंध रखता है। कारण कि - अज्ञात ( नहीं जाने हुए) अर्थ में आकाशपुष्प की तरह राग भाव नहीं होता है। भावार्थ :- क्षायोपशमिक ज्ञान और बुद्धिपूर्वक राग का सहयोग है। जानी हुई वस्तु के प्रति राग-भाव होता है परन्तु नहीं जानी हुई वस्तु के सम्बन्ध में ‘यह वस्तु अच्छी है' ऐसा रागभाव नहीं होता है इसलिए क्षायोपशमिक ज्ञान के अनुसार ही छद्मस्थों के राग की प्रवृत्ति पाई जाती है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार राग के कारण से ज्ञान में अर्थान्तररूप परिवर्तन होता रहता है वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है राग क्रिया है । । १६३ ।। परन्तु ( श्री पंचाध्यायी उत्तरार्थ, गाथा ९०१ से ९०६ ) * अन्वयार्थ :- स्वलक्षण की अपेक्षा से क्षायिक ज्ञान में जो विकल्पपना है वह एक अर्थ से दूसरे अर्थ के विषय में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के अवलम्बन से होने वाली संक्रांतिरूप विकल्प शब्द के अर्थ की अपेक्षा से नहीं है। भावार्थ :- ज्ञानगुण साकार है, शेषगुण निराकार हैं। ज्ञानगुण के साकार होने से ही उसके द्वारा वस्तु का वस्तुत्व और निजस्वरूप भी जाना जाता है। तथा जितने भी गुणों का उल्लेख किया जाता है वह सब उन सब गुणों के विकास होने से इस ज्ञानगुण में होने वाली उन विकासों की ७७ मैं कान से नहीं सुनता हूँ* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com ज्ञानी ऐसा मानता है कि -
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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