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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है कारण निश्चय पक्ष से भी स्व-पर प्रकाशकपना है ही । ( वह इस प्रकार) सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षण से ( तथा भिन्न प्रयोजन से) जाना जाता है तथापि वस्तुवृति से ( अखण्ड वस्तु की अपेक्षा से ) भिन्न नहीं है; इस कारण से यह (सहजज्ञान) आत्मगत (आत्मा में स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदि को जानता है और स्व आत्मा को - कारणपरमात्मा के स्वरूप को भी जानता है । सहजज्ञान स्व आत्मा को तो स्वाश्रित निश्चयनय से जातना ही है और इस प्रकार स्वात्मा को जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं। अब सहजज्ञान ने जो यह जाना उसमें भेद - अपेक्षा से देखें तो सहजज्ञान के लिए ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त अन्य सबदर्शन, सुख आदि पर हैं; इसलिए इस अपेक्षा से ऐसा सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्ष से भी ज्ञान स्व को तथा पर को जानता है । । १४९ । । (श्री नियमसार जी टीका, गाथा १५९, श्री पद्मप्रभमलधारि देव ) * ज्ञान, दर्शन धर्मों से युक्त होने के कारण आत्मा वास्तव में धर्मी है I सकल इन्द्रियसमूहरूपी हिम को ( नष्ट करने के लिए ) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव उसी में ( अलग-अलग ज्ञान, दर्शन धर्मयुक्त आत्मा में ही) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त होता है - कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहजदशारूप से सुस्थित है ।।१५० ।। (श्री नियमसार जी कलश २७९ श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ) * निश्चयनय से ज्ञान स्वप्रकाशक हैं; इसलिए दर्शन स्वप्रकाशक है। निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है इसलिए दर्शन स्वप्रकाशक है।। १५१।। (श्री नियमसार, श्री कुंदकुंदाचार्य गाथा १६५ ७० * मैं ज्ञायक ही हूँ और मुझे ज्ञायक ही जानने में आ रहा है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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