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________________ सीधा सहारा लेना पसंद करता हूँ, और वैसी ही सिफारीश करता हूँ । जितना समझमें आये अमलमें लाते जाये, तो साधकका काम हो जाता है । फिर भी जब अनेक वाद पड़े ही हैं, और उनसे बचना दिमाग के लिए अशक्य हो जाता है, तब कोई भाष्य अगर उनका समन्वय कर देता है तो वह भी उपयोगी होता है। गीता का उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र आदि से समन्वय करने की आवश्यकता पुराने टिकाकारों को इसी लिए महसूस हुई थी । वही आवश्यकता आज अधिक व्यापक स्वरूप में, याने सब धर्मो और पंथ के साथ महसूस हो सकती है। उस दिशामें संतबालजी के गीता-दर्शन का एक उपयोग होगा, ऐसी उम्मीद हम रख सकते हैं। उनका जैन दर्शन से उत्तम परिचय है। वे गीता और जैन विचार का इस गीता-दर्शन में जगह जगह सामंजस्य बताते हैं । वह अगर चित्त में स्थिर हो गया तो कम से कम गुजराती वाचकों के लिए बहुत लाभदायी होगा। वैसे तो यह समन्वय गांधीजीने अपने जीवन से ही सिद्ध किया है। समत्व - बुद्धि और अहिंसा यह है दोनों का समन्वय । उसको हम जीवनमें उतारे तो हमारा बेड़ा पार है। विनोबा परंधाम, पवनार २२-२-१९४८ ગીતાદર્શન
SR No.008085
Book TitleJain Drushtie Gita Darshan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantbal
PublisherMahavir Sahitya Prakashan Mandir Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages401
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Philosophy, & Religion
File Size20 MB
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