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________________ विपय की पूर्वापर कडी को जोडे रखने के लिए अनुवाद में कहीं-कही कोप्टको में विशिष्ट शब्द दिये गये है। इन सब विद्वानो के सहयोग के प्रति हम हृदय से आभारी है। __ सगीति का द्वि-दिवमीय अधिवेशन अणुव्रत विहार तथा जैन बालाश्रम में आयोजित था। अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तकः आचार्य श्री तुलसीजी तथा उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी की ओर से प्रारम्भ से ही इस कार्य में प्रोत्साहन मिलता रहा है। इनके साथ-साथ दोनो सस्थाओ के व्यवस्थापको तथा कार्यकर्ताओ ने भी जो आत्मीय सहयोग दिया उसके लिए पर्व-सेवा-सघ आभारी है। श्रावक-शिरोमणि साहू शातिप्रसादजी जैन तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानी जैन तथा श्री प्रभुदयालजी डाभड़ीवाला के भी हम विशेष कृतज्ञ है जिन्होने सगीति को सफल बनाने में हार्दिक सहयोग दिया। उपाध्याय कविरत्न जमरमुनिजी, मुनि श्री सतबालजी, कानजी स्वामी, आचार्य श्री आनन्दऋषिजी, मुनि श्री यशोविजयजी आदि सन्तो ने भी इस मगल प्रयास का पूरा समर्थन किया, अनेक सुझाव दिये और प्रेरणा दी जिससे हमे बल मिला है । ग्रन्थ के प्रचार में पहल करनेवालो में भारत जैन महामण्डल, बम्बई के महामत्री श्री रिषभदासजी राका तथा हैदराबाद के प्रसिद्ध सर्वोदयी मित्र श्री विरधीचन्दजी चौधरी का विशेष सहयोग मिला है। दोनो सज्जनो ने अग्रिम राशि भेजकर ग्रथ के प्रकाशन को सुलभ बना दिया है। __ भाई श्री राधाकृष्णजी बजाज ने तो प्रारभ से ही इस कार्य को अपना माना है। श्री जमनालालजी जैन का भी प्रारभ से ही सभी कार्यो में बराबर सहयोग मिलता रहा है। श्री मानव मुनिजी का भी सहयोग मिला है। ये सब सर्व-सेवा-सघ के अभिन्न अग है। अपनो के प्रति आभार कैसे माना जाय। ब्र० जिनेन्द्र वर्णीजी का उल्लेख किये बिना रहा नहीं जाता। बाबा की प्रेरणा उन्हे स्पर्श कर गयी और वे पल-पल इस कार्य में जुट गये। कृश और अस्वस्थ काया में भी संजग एव सशक्त आत्मा के प्रकाश में आपने यह दायित्व हँसते-हँसते निभाया। वे नहीं चाहते कि कही उनका नाम टकित किया जाय, लेकिन जिसकी सुगधि भीतर से फूट रही है, फैल रही है, उसे कौन रोक सकता है। हम कौन होते है, उनका आभार व्यक्त करनेवाले ! सब प्रभु की कृपा हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस सपूर्ण कार्य के पीछे प्रभु-प्रवाह, काल-प्रवाह और समाज-प्रवाह की अनुकूलता मिली, जिससे समणसुत्त ग्रंथ की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हुई। भगवान् महावीर की २५ सौवी निर्वाण-संवत्सरी के उपलक्ष्य में यह सर्वमान्य ग्रन्थ सबके पास पहुँचे, यही मंगल भावना है । - पाँच - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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