SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्योतिर्मुख ५७. जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मो का बन्ध करता है। ५८. (प्रमत्त मनुष्य) शरीर और वाणी से मत्त होता है तथा धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है । वह राग और द्वेष--दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केचुआ) मुख और शरीर--दोनों से मिट्टी का सचय करता है । ५९. ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नही बँटा सकते। वह स्वय अकेला दु.ख का अनुभव करता है। क्योकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है । ६०. जीव कर्मो का बन्ध करने मे स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कही जीव कर्म के अधीन होते है तो कही कर्म जीव के अधीन होते है। जैसे कही (ऋण देते समय तो) धनी बलवान् होता है तो कही (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है। ६२. सामान्य की अपेक्षा कर्म एक है और द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा दो (प्रकार का) है। कर्म-पुद्गलों का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसमे रहनेवाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होनेवाले राग-द्वेषरूप दिकार भावकर्म है । ६३. जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञानदर्शन मय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मो से नहीं बँधता । अतः पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण कैस कर सकते है ? (अर्थात् उसे नया जन्म धारण नही करना पड़ता।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy