SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्योतिर्मुख ५१ जीव जन्म, जरा और मरण से होनेवाले दुख को जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विपयो से विरक्त नहीं हो पाता । अहो ! माया (दम्भ) की गाँठ कितनी सदढ होती है। ५२-५४ मसारी जीव के (राग-द्वेपरूप) परिणाम होते है । परिणामो से कर्म-बध होता है । कर्म-बध के कारण जीव चार गतियो म गमन करता है--जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती है। उनसे जीव विपयो का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग-द्वेप पैदा होता है । इस प्रकार जीव समारचक्र में परिभ्रमण करता है। उनके परिभ्रमण का हनुभूत परिणाम (मम्यग्दृष्टि उपलब्ध न होने पर) अनादिअनन्त और (सम्यग्दृष्टि के उपलब्ध होने पर) अनादि-मान्त होता है। '५ जन्म दुख है, बुढ़ापा दु ख है, रोग दु ख है और मृत्य दु ख है। अहो । समार दु ख ही है, जिसम जीब क्लेग पा रहे है। ६. कर्मसूत्र ५६ जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना, कहना या करना विपर्यास या विपरात वुद्धि है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy