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________________ समणमुत्त अन्तरात्मा-देहादि से भिन्न आत्मस्वरूप को यन्तर ग्रन्थ-मिथ्यादर्शन तथा कपाय समझने वाला सम्यग्दृष्टि ( १७९) मादि १४ भाव (१४३) अन्तराय-कर्म-दान लाभ आदि में बाधक अ अन्तर तप-प्रायश्चित्त, विनय आदि के कर्म (६६) प में व्ह प्रकार का आन्तरिक तप अन्यत्व-अनुप्रेक्षा-अपने स्वरूप को देहादि (४५६) से भिन्न देग्वने की भावना (५१८- अ पन्तर सलेखना-कपायो की कृशता ५२०) अपध्यान-राग-द्वेपवश दूसरो का अनिष्ट दृष्टि-तत्त्वो के प्रति अभ्रान्तदृष्टि चिन्तन (३२१) (२३७) अपरभाव-वस्तु का शुद्ध स्वभाव या तत्त्व अमन-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष न होने के कारण (५९५) जीव आदि पॉच द्रव्य (६२६) अपरमभाव-अपरभाववत् (५९०) अयोगी-केवली-साधक की चौदहवी अथवा अपवाद-शक्ति की हीनतावश वीतराग- अन्तिम भूमि जिसमे मन वचन काय की मागियो को भी आहार आदि के ग्रहण नमस्त चेप्टाएँ शान्त होकर शैलेशी की आज्ञा (४४) स्थिति प्राप्त जीव (५६४) अपूर्वकरण-साधक की अष्टम भूमि, जिसमे अग्हत या अर्हन्त-प्रथम परमेष्ठी (१), प्रविष्ट होने पर जीवो के परिणाम प्रति जीवन्मुक्त सर्वज्ञ (७), जो पुन. देह समय अपूर्व-अपूर्व ही होते है (५५६- पारण नही करते (१८०) ५५७) अर्थ--ज्ञान के विषय द्रव्य गुण व पर्याय अप्रदेश-जिसका अन्य कोई प्रदेश नही होता ऐसा एकप्रदेशी परमाणु (६५२) अरूपी-दे० अमूर्त (५९२) अप्रमत्त-रागद्वेष रहित, यानाचारी और अलोक-'लोक' के बाहर स्थित केवल आत्मा के प्रति सदा जागृत (१६६-- असीम आकाश (६३६) अधिज्ञान-मर्यादित देश-काल की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत-साधक की सप्तम भूमि, जहाँ न्तरित कुछ द्रव्यो को तथा उनके कुछ किसी प्रकार का भी प्रमाद व्यक्त नही सुक्ष्म भावो तक को एक सीमा तक प्रत्यक्ष होता (५५५) करनेवाला ज्ञान-विशेष (६८१, ६८९) अप्रमाद-राग-द्वेषविहीन आत्मजागृति अनमोदर्य-आहार की मात्रा में क्रमश. कमी (सूत्र १३) करते हुए एक चावल तक पहुंचना अभयदान-मरण आदि के भय से ग्रस्त १४४८) जीवो की रक्षा करना (३३५) गरत सम्यग्दृष्टि-साधक की चतुर्थ भूमि, अभिगृहीत मिथ्यात्व-दूसरो के उपदेश जसमे सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी भोगों जादि से असत्य धर्म तथा तत्त्वो के अथवा हिसा आदिक पापो के प्रति प्रति उत्पन्न श्रद्धा और सत्य के प्रति विरति भाव जागृत नही हो पाया अश्रद्धा (५४९) (५५२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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