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________________ ४४. वीरस्तवन ७५०. ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान् महावीर मेरे शरण है। ७५१. वे भगवान् महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उतर. गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान् और ग्रन्थातीत अर्थात् अपरिग्रही थे, अभय थे और आयकर्म से रहित थे। ७५२. वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सर्य की भॉति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होने अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थो के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था। ७५३. जैसे हाथियो मे ऐरावत, मृगों मे सिह, नदियों में गंगा, पक्षियों मे वेणु देव (गरुड) श्रेष्ठ है, उसी तरह निर्वाणवादियो मे ज्ञातपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे। ७५४. जैसे दानो मे अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचनों मे अनवद्य वचन (पर-पीडाजनक नही) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों मे ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही ज्ञातपुत्र श्रमण लोक मे उत्तम थे । ७५५. जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को जाननेवाले, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् के नाथ, जगत् के बन्धु, जगत् के पितामह भगवान् जयवन्त हों। ७५६. द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवन्त हों, तीर्थकरो म अन्तिम जयवन्त हों । लोकों के गुरु जयवन्त हों। महात्मा महावीर जयवन्त हों। -०४३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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