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________________ स्याद्वाद २३५ ७२८ सभी नय अपने-अपने वक्तव्य मे मच्चे हैं, किन्तु यदि दूसरे नयों के वक्तव्य का निराकरण करते है तो मिथ्या है। अनेकान्तदृष्टि का या शास्त्र का ज्ञाता उन नयो का ऐसा विभाजन नही करता कि 'ये सच्चे है' और वे झूठे है'। ७२९ निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते है और न वे समुदायरूप कर देने पर सम्यक होते है। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के गमक नही होते, क्योंकि पृथक्-पृथक् अवस्था में भी वे गमक नहीं है। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण वैरी की भॉति परस्पर विरोधी है। जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के बा में रहते है, या आपस मे लडने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं. वैसे ही ये सभी परस्पर विधी नय स्यावाद की धारण म जाकर सम्यकभाव को प्राप्त हो जाते है। अर्थात स्याद्वाद की छत्रछाया में परस्पर विरोध की कारणभूत सावधारणता दूर हो जाती है और वे सब सापेक्षतापूर्वक एकत्र हो जाते है। ७३१. जसे हाथी के पूंछ, पैर. सूंड़ आदि टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अश को ग्रहण करके 'हमने पूरी वस्तु जान ली है-ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का उस वस्तुविषयक ज्ञान मिथ्या होता है । ७३२. तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी जानने वाले चक्षुष्मान् (दृष्टिसम्पन्न) का ज्ञान सम्यक होता है, वैसे ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों को या उसके धर्मो को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक् होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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