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________________ २१९ स्याद्वाद ६७९ इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतानुसारी होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाला अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है। (इससे स्वयं तो जाना जा सकता है, किन्तु दूसरे को नही समझाया जा सकता ।) श्रुतज्ञान मतिजानपूर्वक होता है । मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नही होता । यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है। 'पूर्व' शब्द 'पृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है पालन और पूरण । श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अत. मति पूर्वक ही श्रुत कहा गया है । ६८१. 'अवधीयते इति अवधि.' अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थो को एकदेश जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है। इसे आगम मे सीमाज्ञान भी कहा गया है। इसके दो भेद है--भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । ६८२. जो ज्ञान मनुप्यलोक मे स्थित जीव के चिन्तित, अचिन्तित, अर्ध चिन्तित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है, वह मन.पर्ययज्ञान है । ६८३ केवल शब्द के एक, शद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ है। अत. केवलज्ञान एक है, इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और उसके होने पर अन्य सब ज्ञान निवृत्त हो जाते है । इसीलिए केवलज्ञान एकाकी है, मलकलक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयो का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नही है, अत असाधारण है। इसका कभी अन्त नही होता, अत अनत है । ६८४. केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वत परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नही है जिसे केवलज्ञान नही जानता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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