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________________ तत्त्व-दर्शन १९५ ६०८. मुमुक्षुजीव सम्यक्त्वरूपी दृढ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वार को रोकता है तथा दृढ़ व्रतरूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है । ६०९-६१०. जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बन्द करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमश: सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म पापकर्म के प्रवेश मार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है--- नष्ट होता है । ६११. यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता । ६१२. अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या वर्षो में जितने कर्मो का क्षय करता है, उतने कर्मो का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सॉस मे सहज कर डालता है । ६१३. जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते है । ६१४. कर्ममल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्तसुख भोगता है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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