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________________ मोक्ष-मार्ग ५५३. जो त्रस जीवों की हिसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिसा से विरत नहीं हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान् मे ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक रेसविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । ५५४. जिसने महाव्रत धारण कर लिये है, सकल शील-गण से समन्वित हो गया है, फिर भी अभी जिसमे व्यक्त-अव्यक्तरूप मे प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । इसका व्रताचरण किचित् सदोष होता है । ५५५. जिसका व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद नि.शेष हो गया है, जो ज्ञानी होने के साथ-साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित है, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय करता है--केवल आत्मध्यान मे लीन रहता है, वह श्रमण अप्रमत्तसयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । ५५६. इस आठवे गुणस्थान में विसदृश (विभिन्न) समयों में स्थित जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते है, जो पहले कभी भी नही हो पाये थे। इसीलिए इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। ५५७. अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने मे तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवे और दसवे गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान मे ही शुरू हो जाती है।) *अप्रमत्तसयत गुणस्थान से आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती है-उपशम और क्षपक । उपशम श्रेणीवाला तपस्वी मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए ग्यारहवे गुणस्थान तक चढने पर पुन. मोहनीय कर्म का उदय होने से नीचे गिर जाता है और दूसरा क्षपक श्रेणीवाला मोहनीय कर्म का समूल क्षय करते हुए आगे बढ़ता जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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