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________________ मोक्ष-मार्ग ५२१ मोह के उदय से उत्पन्न होनेवाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम (साम्य ) भाव मे ल न मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है। ५२२. तीन गुप्तियो के द्वारा इन्द्रियो को वश मे करनेवाला तथा पंच समितियो के पालन मे अप्रमत्त मुनि के आस्रवद्वारो का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आनव नही होता है । यह संवर अनुप्रेक्षा है। ५२३. लोक को निःमार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुनिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सु वपूर्वक सदा निवास करते है। ५२४. बँधे हुए कर्म प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है। जिन कारणो से संवर होता है, उन्ही कारणो से निर्जरा होती है। ५२५. जरा और मरण के तेज प्रवाह मे बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। ५२६. (प्रथम तो च पूर्गतियो में भ्रमण करनेवाले जीव को मनुष्य-शरीर ही मिलना दुर्लभ है, फिर) मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिसा को प्राप्त किया जाय । ५२७ कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाय, तो उस पर श्रद्धा होना महा कठिन है। क्योकि बहुत-से लोग न्यायमगन मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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