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________________ मोक्ष-मार्ग १६३ ५१४. (वास्तव में.) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। ५१५. यहाँ प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है। ऐसी स्थिति मे यहाँ कौन किसका स्वजन है और कोन किसका परजन ? ५१६. ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है । शेष सब अर्थात् देह तथा रागादि भाव तो संयोगलक्षणवाले है-उनके साथ मेरा संयोगसम्बन्ध मात्र है । वे मुझसे अन्य ही है। ५१७. इस संयोग के कारण ही जीव दुःखों की परम्परा को प्राप्त हुआ है। अतः सम्पूर्णभाव से मै इस संयोग-सम्बन्ध का त्याग करता हूँ। ५१८. अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर मे कष्ट भोगनेवाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता ! ५१९. जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिन्तन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है । ५२०. मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थ को बहानेवाले शरीर मे क्या मुख हो सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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