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________________ मोक्ष-मार्ग ५०७. जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्वावस्था के साथ । लक्ष्मी च चला है । इस प्रकार (मपार मे) सब-कुछ क्षण-भंगुर है-अनित्य है। ५०८. महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय-विपयो को क्षण-भंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो। ५०९. अज्ञानी जीव धन, पशु तया ज्ञातिवर्ग को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे है और मै इनका हूँ। किन्तु वास्तव मे ये सब न तो रक्षक है और न शरण । ५१०. मै परिग्रह को समझ-बूझकर तजता हूँ और माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों को भी मन-वचन-काय से दूर करता हूँ। तीन गुप्तियाँ और पाँच समितियाँ ही मेरे लिए रक्षक और शरण है। ५११. इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त ( मृत ) शरीर मे कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। ५१२. इस संसार मे बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो। ५१३ अहो । यह भवसमुद्र दुरन्त है -इमका अन्त बड़े कष्ट से होता है । इसमे व्याधि तथा जरा-मरणरूपी अनेक मगरमच्छ है, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है । इसका परिणाम दारुण दुःख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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