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________________ मोक्ष-मार्ग १५९ ५००. तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, (कर्म-शरीर) का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। ५०१. हे ध्याना ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायगा--तेरी आत्मा आत्मरत हो जायगी। यही परम ध्यान है। ५०२. जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता । ५०३. वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित और भयभीत होता है तथा न हो सूक्ष्म भावों व देवनिर्मित मायाजाल मे मुग्ध होता है। ५०४. जैसे चिरसचित ईधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईधन को क्षणभर मे भस्म कर डालती है । ३०. अनुप्रेक्षासूत्र ५०५. मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्यअशरण आदि भावनाओं के चिन्तवन में लीन रहे। ५०६. अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, ससार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि--इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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