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________________ मोक्ष-मार्ग १५७ निर्भय तथा ४९३. जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निसग, आगारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभावना से युक्त है, वही ध्यान मे सुनिश्चल -- भलीभाँति स्थित होता है । ४९४ जो योगी पुरुषाकार तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबन्धन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है । ४९५ ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य सयोगों विविक्त ( भिन्न) देखता है अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके निसग हो जाता है । ४९६ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान मे चिन्तवन करता है कि "मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' ( पदार्थ या भाव) मेरे है, मैं तो एक (शुद्ध - बुद्ध) ज्ञानमय ( चैतन्य ) हूँ ।" ४९७ ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का सवेदन नही करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नही कर सकता । ४९८. ध्यान करनेवाला साधक पिडस्थ, पदस्थ और रूपातीत -- इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे । पिडस्थध्यान का विषय है— छद्मस्थत्व — देह - विपश्यत्व । पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व - - केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचितन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व -- शुद्ध आत्मा । ४९९. भगवान् उकडूं आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊँचे-नीचे और तिरछे लोक मे होनेवाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे । उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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