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________________ मोक्ष-मार्ग १५५ ४८६. जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिमका चित्त निर्विकल्प समाधि मे लीन हो जाता है, उसकी चिर सचित शुभाशुभ कर्मो को भस्म करनेवाली, आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है। ४८७. जिसके राग-द्वेष और मोह नही है तथा मन-वचन-कायरूप योगो का व्यापार नही रह गया है, उसमे समस्त शुभाशुभ कर्मो को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है। ४८८. पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठनेवाला शुद्ध आचार तथा पवित्र शरीरवाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि मे लीन होता है । ४८९. वह ध्याता पल्यकासन बाँधकर और मन-वचन-काय के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासिकान पर स्थिर करके मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास ले । ४९०. वह अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्दा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जायें । ४९१. जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य मे कोई अन्तर नहीं रह जाता। ४९२. समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों (शब्द-रूपादि) में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों मे मन से भी द्वेषभाव न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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