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________________ होती मोक्ष-मार्ग १५३ ४८०. भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है । ४८१ कायोत्सर्ग करने से ये लाभ प्राप्त होते है---- १. देह्जाइयशुद्धि--ठलेप्म आदि दोपों के क्षीण होने से देह की जडता नष्ट होती है। २. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। ३. सुख-दु ख तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का विकास होता है। ४. अनुप्रेक्षा-भावनाओ के लिए समुचित अवसर का लाभ होता है। ५. एकाग्रता-शुभध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। ४८२. उन महाकुलवालों का तप भी शुद्ध नही है, जो प्रव्रज्या धारणकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते है। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पा तक न चले। अपने तप की किसीके समक्ष प्रशंसा भी नही करनी चाहिए। ४८३. ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि ससार के कारणभत कर्म-बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी प्रचण्ड आग तृण-राशि को। २९. ध्यानसूत्र ४८४. जैसे मनुष्य-गरीर मे सिर और वृक्ष मे उसकी जड उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मो का मूल ध्यान है। ४८५. स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है। और जो चित्त की चंचलता है उसके तीन रूप है--भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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