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________________ धर्म का, इन परम्पग और सम्मृति का मूल सिद्धान्त वीज-प मे व्ही रहा है जो आज है और वह है आत्मवाद, अनेकान्तवाद । इसी आत्मवाद की उर्वरभमि पर जैन धर्म-परम्पग का कल्पतरु फलता-फलता रहा है। जैनधर्म के माधु आज भी 'श्रमण' कहलाते है। 'श्रमण शब्द श्रम, समता तथा विकार-शमन का परिचायक है। उसम प्रभूत अर्थ निहित है । जैनधर्म का अर्थ है जिनोपदिष्ट या जिनप्रवर्तित वल्याण-मार्ग। 'जिन' वे कहलाते है जिन्होने अपने देहगत और आत्मगत अर्थात् बाह्याभ्यन्तर विकारो पर विजय प्राप्त कर ली है। आत्मा के सबसे प्रवल शत्रु है राग-द्वेष मोहादि विकार। इमलिए 'जैन' शब्द अपने मे एक अर्थ रखता है--यह जाति वर्ग का द्योतक नही है। जो भी 'जिन' के मार्ग पर चलता है, आत्मोपलब्धि के पथ का अनुसरण करता है, वह जैन है। वीतराग-विज्ञानता जैनधर्म का लक्ष्य पूर्ण वीतराग-विज्ञानता की प्राप्ति है। यह वीतरागविज्ञान मगलमय है, मगल करनेवाला है, इसीके आलोक में मनुष्य 'अरहात' पद को प्राप्त करता है । यह वीतरागता सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का मिला-जुला पथ ही व्यक्ति को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिलकर ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करते है। जनधर्म की सबसे प्रथम और मूलभूत सिखावन यही है कि श्रद्धापूर्वक विवेक की आँख से ससार को देखकर उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करो और उसे जीवन मे उतारो। लेकिन सम्पूर्ण आचार-विचार का केन्द्र-विन्दु वीतरागता की उपलब्धि है। वीतरागता के समक्ष बडे से वडा ऐश्वर्य व्यर्थ है। प्रवृत्ति हो या निवृत्ति, गार्हस्थ्य हो या श्रामण्य, दोनो स्थितियो म अन्तरात्मा मे निरन्तः वीतरागता की वद्धि ही श्रेयस्कर मानी गयी है। किन्तु अनेकान्तदप्टि के विना वीतगगता की उपलब्धि का मार्ग नही मिलता। यह अनेकान्तदृष्टि ही है जो प्रवृत्ति में भी निवृत्ति, और निवृत्ति में भी प्रवृत्ति के दर्शन कराकर यथार्थ और निवृत्ति का मार्गदर्शन कराती है। - तेरह - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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