SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष मार्ग १३५ ४१८ जो श्रमण आवश्यक कर्म नहीं करता, वह चारित्र से भ्रष्ट है .. अनः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक अवश्य करना चाहिए । ४१९, जो निश्चयचारित्रस्वरूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करता है, वह श्रमण वीतराग चारित्र में समुत्थित या आड होता है । ४२० ( परन्तु ) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान वचनमय नियम और वचनमय आलोचना - ये सब तो केवल स्वाध्याय है ( चारित्र नहीं है) । ४२१. ( अतएव ) यदि करने की शक्ति और सम्भावना हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि कर। इस समय यदि शक्ति नहीं है तो उनकी श्रद्धा करना ही कर्तव्य है- श्रेयस्कर है | ४२२. सामायिक, चतुर्विगति जिन स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान - ये छह आवश्यक है । ४२३. तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र मे समभाव रखना ही सामायिक है । अर्थात् रागद्वेषरूप अभिष्वगरहित 1 ध्यान या अध्ययन रूप ) उचित प्रवृत्तिप्रधान चित्त को सामायिक कहते है । ४२४. जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमममाथि या सामायिक होती है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy