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________________ मोक्ष-मार्ग १३१ ४०५. उद्गम-दोप, . उत्पादन-दोप और अशन-दोपो से रहित भोजन, उपधि और शय्या-बसलिका आदि की शुद्धि करनेवाले मुनि के एपणा ममिति शुद्ध होती है। ४०६ मुनिजन न तो बल या आय बढाने के लिए आदार करते है, न स्वाद के लिए करते हे और न शरीर के उपचय या तेज के लिए करते है । वे ज्ञान, मयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करते है। ४०७-४०८ जैसे भ्रमर पुष्यो को तनिक भी पीडा पहुँचाये बिना रम ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक मे विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते है। यही उनकी एपणा समिति है। यदि प्रासुक-भोजी साधु आधाकर्म से युक्त एवं अपने उद्देश्य से बनाया गया भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्नु यदि वह उद्गमादि दोपो से रहित शद्ध भोजन की गवेषणापूर्वक कदाचित् आधाकर्म से युक्त भोजन भी कर लेता है तो भावों से शुद्ध होने के कारण वह शुद्ध है। ४१० यतना (विवेक-) पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने दोनों प्रकार के उपकरणो को ऑखो से देखकर तथा प्रमार्जन करके उठाये और रखे । यही आदान-निक्षेपण समिति है। ४११. माधु को मल-मूत्र का विमर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ एकान्त हो, हरित (गीली) वनस्पति तथा त्रस जीवो से रहित हो, गाँव आदि से दूर हो, जहाँ कोई देख न सके, विशाल-विस्तीर्ण हो, कोई विरोध न करता हो। यह उच्चारादि त्यागरूप प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति है। • आहार बनाते समय होनेवाले दोपो को उद्गमदोष कहते है । आहार-ग्रहण करने मे होनेवाले दोपो को अशनदोष कहते है । उत्पादन विषयक दोषो को उत्पादनदोष कहते है। | अधिक आरम्भ तथा हिसा द्वारा तैयार किया गया भोजन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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