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________________ मोक्ष-मार्ग ३६६. जो व्रती मोक्ष-मुख की उपेक्षा या अवगणन करके (परभव में) अमार सख की प्राप्ति के लिए निदान या अभिलापा करता है वह काँच के टुकडे के लिए वैडूर्यमणि को गवाता है । ३६७. कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि म जीवो को जानकर उनमे सम्बन्धित आरम्भ से निवृत्तिरूप (आभ्यन्तर) परिणाम प्रथम अहिमाबत है। ३६८. अहिमा सव आश्रमों का हृदय, मब नास्त्रो का रहय तथा सत्र व्रतो और गुणों का पिण्डभूत सार है। ३६९. स्वयं अपने लिए या दूसरो के लिए क्रोधादि या भय आदि के वा होकर हिसात्मक असत्यवचन न तो स्वय बोलना चाहिए और न दूसरो से बुलवाना चाहिए। यह दूमग सत्यव्रत है। ३७०. ग्राम, नगर अथवा अरण्य मे दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले साधु के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। ३७१. सचेतन अथवा अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दाँत साफ करने की मीक तक भी माधु बिना दिये ग्रहण नहीं करते । ३७२. गोचरी के लिए जानेवाले मुनि को वजित भूमि में प्रवेश नही करना चाहिए। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही जाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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