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________________ मोक्ष-मार्ग ११५ ३१.३. समतारहित श्रमण का वनवास, कायक्लेग, विचित्र उपवास, अध्ययन और मौन व्यर्थ है । ५४ प्रबुद्ध और उपशान्त होकर सयतभाव से ग्राम और नगर मे विचरण कर । शान्ति का मार्ग वढा । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। ३५५ भविष्य में लोग कहेगे, आज 'जिन' दिखाई नहीं देते और जो मार्गदर्शक है वे भी एकमत के नहीं है । किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। अत. गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। (आ) वेश-लिंग ३५६ (संयममार्ग मे) वेश प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह असंयमी जनों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विप नहीं मारता ? ३५७. (फिर भी) लोक-प्रतीति के लिए नाना तरह के विकल्पो की वेश आदि की परिकल्पना की गयी है । सयम-यात्रा के निर्वाह के लिए और 'मै साधु हूँ' इसका बोध रहने के लिए ही लोक मे लिग का प्रयोजन है। ३५८. लोक मे साधुओ तथा गृहस्थों के तरह-तरह के लिग प्रचलित है जिन्हे धारण करके मूढजन ऐसा कहते है कि अमुक लिग (चिह्न) मोक्ष का कारण है । ३५९. जो पोली मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकनेवाली काँचमणि है उसका जानकारों की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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