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________________ मोक्ष-मार्ग १०५ ३१९ (व्यापार आदि के क्षेत्र को परिमित करने के अभिप्राय से) ऊपर, नीचे तथा तिर्यक दिगाओ मे गमनागमन या सम्पर्क आदि की सीमा बाँधना दिग्वत नामक प्रथम गुणवत है । जिस देश में जाने से (किसी भी) ब्रत का भग होता हो या उसमे दोप लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाधिक नामक दूसरा गुणवत है । ३२१ प्रयोजन-विहीन कार्य करना या किसीको सताना अनर्थदण्ड कहलाता है । इसके चार भेद है---अपध्यान, प्रमादपूर्णचर्या, हिमा के उपकरण आदि देना और पाप का उपदेश । इन चारों का माग अनर्थदण्ड-विरति नामक तीसरा गुण व्रत है । ३२२ प्रयोजनवा कार्य करने से अल्प कर्मबन्ध होता है और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबन्ध होता है। क्योकि यप्रयोजन कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियो की सापेक्षता रहती है, लेकिन निप्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही ( . पर्यादितरूप से) की जा सकती है। ३२३ जनर्थदण्ड-विरत श्रावक को कन्दर्प (हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन प्रयोग), कौत्कुच्य (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (व्यर्थ बकवास), हिसा के अधिकरणों का सयोजन तथा उपभोग परिभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिए। ३२४ चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है--भोगो का परिमाण, सामायिक, अतिथि-स विभाग और प्रोषधोपवास। ३२५. भोगोपभोग-परिमाणवत दो प्रकार का है---भोजनरूप तथा कार्य या व्यापाररूप । कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, उदुम्बर फल तथा मद्यमांसादि का त्याग या परिमाण भोजनविषयक भोगोपभोगपरिमाण व्रत है, और खरकर्म अर्थात् हिसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापार-विषयक भोगोपभोगपरिमाण व्रत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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