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________________ १०१ है। मोक्ष-मार्ग २०६ (माम की तरह) मद्यपान से भी मनुप्य मदहोश होकर निन्द नीय कर्म करता है और फलस्वरूप उग लोक लथा परलोक में अनन्त दुखो का अनुभव करता है । २०. जिसके हृदय में पसार प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली, शल्य रहित तथा मेम्बत् निाकमा और दृढ जिन-भक्ति है, उसे ससार म किसी तरह का भग नहीं है। ३०८ शत्रु भी विनयशील आक्ति का भित्र वन जाता है। इसलिए देशविग्न या अणुवती श्रावक को मन-वचन-काय मे सम्यक्त्वादि गुणो की तथा गणीजनो नी धिनय करना चाहिए। ३०९ प्राणि-बध (हिमा), मृपाबाद (अमत्य चन), बिना दी हुई वस्तु का गहण (चोरी), परस्त्री-गेवन (कुगील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पाचो पापो से बिरति अणुव्रत है। ३१० प्राणिवध से विरत श्रावक को-क्रोधादि कपायों से मन को दूषित करके पशु व मनुप्य आदि का बन्धन, डडे आदि से ताडन-पीड़न, नाक आदि का छेदन, शक्ति से अधिक भार लादना तथा खानपान रोकना आदि कर्म नहीं करने चाहिए। (क्योंकि ये कर्म भी हिसा जैसे ही है। इनका त्याग स्थूल हिसा-विरति है।) ३११ स्थूल (मोटे तौर पर) असत्य-विरति दूसरा अणुव्रत है। (हिसा की तरह) इनके भी पाँच भेद है--कन्या-अलीक, गो-अलीक व भू-अलोक अर्थात् कन्या, गो (पश) तथा भूमि के विषय मे झूठ बोलना, किसीकी धरोहर को दवा लेना और झूठी गवाही देना। (इनका त्याग स्थूल असत्य-विरति है।) ३१२. (साथ ही साथ) सत्य-अणुव्रती बिना सोचे-समझे सहमा न तो कोई बात करता है, न किसीका रहस्योद्घाटन करता है, न अपनी पत्नी की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रकट करता है, न मिथ्या (अहितकारी) उपदेश करता है और न कूटलेखक्रिया (जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि) करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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