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________________ मोक्ष-मार्ग २८१. आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती ही है । आभ्यन्तर-दोप से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है । २८२. मद. मान, माया आर लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है, ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रप्टा सर्वज्ञदेव का भव्यजीवों के लिए उपदेश है। २८३. पाप-आरम्भ (प्रवृत्ति) को त्यागकर शुभ अर्थात् व्यवहार चारित्र मे आरूढ रहने पर भी यदि जीव मोहादि भावों से मुक्त नही होता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही करता। २८४. (इसीलिए कहा गया है कि) जैसे शुभ चारित्र के द्वारा अशुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध (-उपयोग) के द्वारा शुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से--व्यवहार और निश्चय के पूर्वापर क्रम से-- योगी आत्मा का ध्यान करे। निश्चयनय के अनुसार चारित्र (भावशुद्धि) का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी धात हो जाता है, परन्तु व्यवहारनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का घात हो भी सकता है, नही भी हो सकता । (वस्तुतः ज्ञान-दर्शन की व्याप्ति भावशुद्धि के साथ है, बाह्य-क्रिया के साथ नही।) २८६-२८७. श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से यक्त धनुष से कर्म-कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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