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________________ मोक्ष-मार्ग (आ) निश्चय चारित्र २६८. नियनय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना ही (निश्चय-) सम्यक्चारित्र है। ऐसे चारियशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है । २६१. जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है । २७०. जो राम के वशीभूत होकर पर-द्रव्यों में शुभाशुभ भाव करता है वह जीव स्वकीय चारित्र से भ्रष्ट परचरिताचारी होता है। २७१. जो परिग्रह-मुक्त तथा अनन्य मन होकर आत्मा को ज्ञानदर्शन मय स्वभावरूप जानता-देखता है, वह जीव स्वकीयचरिताचारी है। २७२. जो (इस प्रकार के) परमार्थ में स्थित नही है, उसके तपश्चरण या व्रताचरण आदि सबको सर्वज्ञदेव ने वालपन और बालवत कहा है। २७३. जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है और (पारणा मे) कुश के अग्रभाव जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवी कला को भी नही पा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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