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________________ मोक्ष-मार्ग ८५ ५५६. जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वही शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् देहादियुक्त जानता है वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है । २५७. जो अध्यात्म को जानता है वह वाह्य (भौतिक) को जानता है । जो वाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है। (इस प्रकार वा ह्याभ्यन्तर एक-दूसरे के सहवर्ती है ।) २५८. जो एक (आत्मा) को जानता है वह सब (जगत् ) को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है । २५९. (अतः हे भव्ध ! ) तू इस ज्ञान मे सदा लीन रह । इसीमे सदा संतुष्ट रह । इसीमे तृप्त हो । इनोगे तुझे उत्तमसुख (परमसुख) प्राप्त होगा। २६०. जो अर्हन्त भगवान् को द्रव्य-गण-पर्याय की अपेक्षा से (पूर्ण रूपेण) जानता है, वही आत्मा को जानता है । उसका भोह निश्चय ही विलीन हो जाता है । २६१. जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनो के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान-निधि का उपभाग पर-द्रव्यों से विलग होकर अपने मे ही करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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