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________________ मोक्ष-भार्ग २४३. धर्मकथा के कथन द्वारा और निर्दोप वाह्य-योग (ग्रीष्म ऋतु में पर्वत पर खड़े होकर, वर्षा ऋतु मे वृक्ष के नीचे, शीत ऋतु मे नदी के किनारे ध्यान) द्वारा तथा जीवों पर दया व अनुकम्पा के द्वारा धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। २४४. प्रवचन-कुशल, धर्मकथा करनेवाला, वादी, निमित्तशास्त्र का ज्ञाता, तपस्वी, विद्यासिद्ध तथा ऋद्धि-सिद्धियो का स्वामी और कवि (क्रांतदर्शी) ये आठ पुरुष धर्म-प्रभावक कहे गये हैं। १९. सम्यग्ज्ञानसूत्र २४५. (साधक) सुनकर ही कल्याण या आत्महित का मार्ग जान सकता है। सनकर ही पाप या अहित का मार्ग जाना जा सकता है। अत: सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए। २४६. (और फिर) ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यग्दर्शन-मूलक तप, नियम, संयम मे स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध (संयमी साधक) जीवनपर्यन्त निष्कम्प (स्थिरचित्त) होकर विहार करता है। २४७. जैसे-जैसे मुनि अतिशयरस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नित-नूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है। २४८. जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नही है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार मे पड़कर भी नष्ट नही होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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