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________________ मोक्ष-मार्ग २३६ जो समस्त धर्मो (वस्तु-गत स्वभाव) के प्रति ग्लानि नही करता, उसीको निविचिकित्सा गुण का धारक सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए। २३७. जो समस्त भावों के प्रति विमूढ़ नही है--जागरूक है, निर्धान्त है, दृष्टिसम्पन्न है, वह अमूढ़दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। २३८. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शान्ति (क्षमा) एवं मुक्ति (निर्लोभता) के द्वारा आगे बढ़ना चाहिए--जीवन को वर्धमान बनाना चाहिए। २३९. (अमूढदृष्टि या विवेकी) किसीके प्रश्न का उत्तर देते समय न तो शास्त्र के अर्थ को छिपाये और न अपसिद्धान्त के द्वारा शास्त्र की विराधना करे। न मान करे और न अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे । न किसी विद्वान् का परिहास करे और न किसीको आशीर्वाद दे ।। २४०. जब कभी अपने मे दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखायी दे, उसे तत्काल ही मन, वचन, काय से धीर (सम्यग्दृष्टि) समेट ले, जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है। २४१. तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा है ? उसे पार करने में शीघ्रता कर । हे गौतम ! सणभर का भी प्रमाद मत कर। २४२. जो धार्मिकजनों में भक्ति (अनुराग) रखता है, परम श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करता है तथा प्रिय वचन बोलता है, उस भव्य सम्यग्दृष्टि के वात्सल्य होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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