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________________ ३१ वीर + सुंतो चीयसुंतो, वीरेसुंतो ६ वीर+स्सचीरस्स (वीरस्य) वीर+ण-वीराण (वीराणाम्) वीराणं ७ वीर+ए-वीरे ( वीरे) वीर+सु-वीरेसु (वीरेषु) वीरेसुं वीर+सिम्वीरंसि (३२वीरस्मिन् ?) वीर+म्मिवीरम्मि सं० वीर ! ( वीर !) वीर+आ-वीरा ( वीराः !) वीरा! वीरो ! वीरे! संस्कृत अने प्राकृत रूपोनां उञ्चारणोमां नहि जेवो मेद छे. ए मेद, ए रूपो बोलतां ज समझाय छे. मात्र पांचमी विभक्तिमां वधारे अनियमित रूपो छे. रूपो बतावतां नामर्नु मुळ अंग अने प्रत्ययनो अंशए बन्ने छूटा पाडीने जणावेलां छे. अने साथे साथे ए ऊपरथी साधित थतां दरेक रूपो पण जुदां जुदां दर्शावलां छे. एथी आ साधनपद्धतिद्वारा ज, विद्यार्थी, अकारांत नामनां रूपोने समझी लेशे. ____३२ सप्तमीनो सूचक 'स्मिन्' प्रत्यय संस्कृतमा मात्र 'सर्वादि' शब्दोने लागे छे त्यारे प्राकृत अने पालिमां तो ए सर्व व्यापक छे. प्राक सनो "सि' प्रत्यय, 'स्मिन्नु जुएं पण सरळ उच्चारण छे. फक्त ए सूचववा 'वीरस्मिन्' रूप बताव्युं छे. रूप पासेर्नु ?' निशान, ए रूपनी संस्कृतमा अविद्यमानता सूचवे छे. एवां निशानवाळां बीजां रूपो विशे पण एम समझवानुं छे.
SR No.007832
Book TitlePrakrit Margopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGurjar Granthratna Karyalay
Publication Year1943
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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