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________________ नयामतम-२ [मु.] लक्ष्य लक्षण व्यवहार शबदधी, क्रिया सवि तदधीन रे। शबदनयइं इम निज मति थाप्यइं, थापनानय वदई पीन रे॥सुणो०॥६.६॥(६९) [टबार्थ तिहां नामने वस्तु धर्मतानी मुख्यता विशेष प्रकारिं देखा. छई। लक्ष्य जीवादिक, लक्षण उपयोगादिक, व्यवहार अध्येषणप्रेषणादिक, शब्द जे घटादिक ध्वनिः, बुद्धि ते घटादिक वस्तुनो निश्चय, क्रिया ते उत्क्षेपणादिक। ए सर्व नांमनें वसि छ। एणी रीतिं शब्दनयवादीइं एकांतिं नामनिं था थकें थापनानय बोलें छई। थापनानय पणि युक्तिं पुष्ट छइं॥६.६॥(६९) शबद वस्तु किरिया फल संज्ञा, मत्यादिक सवि भाव रे। छइं आकाररूप जगमाहिं, निराकार अभाव रे॥सुणो०॥६.७॥(७०) [टबार्थ शब्द जे पौद्गलिक छे माटें आकारवंत ठे। वस्तु जे घटादिक ते पणि आकारवंत छ। क्रिया उत्क्षेपणादिक तेह आकारवंत क्रियावंतथी अभिन्न माटें। फल पणि कर्तृसाध्य घटादिक तेह पणि आकारवंत छ। संज्ञा=नाम ते पौद्गलिक माटें आकारवंत छ। मतिज्ञान ते पणि ज्ञेयाकारिं परिणम्या माटें आकारवंत। इत्यादिक सघली वस्तु आकारवंत छई जगमाहिं, पणि आकार विना कोई वस्तु नथी॥६.७॥(७०) वदति द्रव्यनय स्वपरिणामथी, कोंण अनेरो आकार रे। उतफण-विफण-कुंडलिताकृतियुत, अहिपरि ते अविकार रे॥सुणो०॥६.८॥(७१) [टबार्थ द्रव्यार्थिक नय कहें छइं। स्वशब्दिं द्रव्य तेहनो परिणाम जे पूर्व पर्यायनें नासिं अपर पर्यायनी उत्पत्ति तावन्मात्र विना कौंण बीजो आकार छे? अपितु कोई नही। ईहां दृष्टांत कहें छइं। उत्फण, विफण, कुंडलितादिक आकार युक्त जे सर्प तेहने विर्षे स्यु नवु उपर्नु? अनि मूलगुं नास स्युं पाम्यु? जिणे विकार होइं तेवू तो कई नथी। ते माटें विकार रहित ज जाणवों॥६.८॥(७१) [मु.] उदभव लयनि कार्योपचारि, कलपित हेतुता एहनई रे। नटपरि नित्य इति हेतु ज मानो, कार्य नही त्रिण्य भुवनि रे॥ सुणो०॥६.९॥(७२) [टबार्थ ईहां कोई इंम कहें छ। जे सर्पादिक द्रव्ये उत्फणादिक पर्याय उपजें छे, विफणादिक नास पामें छइं इंम उत्पाद नासनी प्रत्यक्षताइं उत्पादादिरहित किम कहीइं? ते उपरि कहें छ। जिम सर्प द्रव्यनें उत्फणविफणरूप परिणामनो आविर्भाव-तिरोभाव छ। तेहनि कार्यतानो उपचार करीइं छइं ते माटें सर्पनि कारणतानो उपचार कीधो पणि परमार्थिक उत्पादादि रहित द्रव्य ज छ। ते तो नित्य छई। इमं कारण जगमाहिं मानवू, अनि कारणपणुं तो पूर्वापरपरिणामनें पूर्व परिणाम थाइं छे। तिहां कार्यता कोईनी नही इति भावः। उत्पत्ति अनि नास मात्र रूप जे परिणाम तेहनि कार्यनो उपचार करीइं छइं तेह माटें कल्पनाई कारणपणुं ए द्रव्यनि कहीइं पणि नटनी परिं नित्य छे। एतला माटें द्रव्य रूप कारण मानो पणि कार्य कोई छई नही जगमाहिं।।६.९॥(७२)
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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