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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [15 के लिये तत्पर हुए निकटवर्ती शिष्यजन के लिये यह शुद्धात्मा का उपदेश है। अपने स्वानुभव से ही ऐसा आत्मा प्राप्त होता है, दूसरे किसी प्रकार से प्राप्त नहीं होता। धर्मी और धर्म के बीच स्वभावभेद नहीं, तथापि भेद का विकल्प करे तो एक धर्मी / आत्मा अनुभव में नहीं आता; इसलिए भेदरूप व्यवहार को उल्लंघकर, अनन्त धर्मस्वरूप एक आत्मा को सीधे लक्ष्य में लेने पर, निर्विकल्परूप से शुद्ध आत्मा अनुभव में आता है, उसमें अनन्त गुण के स्वादरूप ‘आत्मरस' वेदन में आता है। ___ अपनी चैतन्यवस्तु का अनुभव करने पर, गुण-गुणीभेद का विकल्प भी नहीं रहता; निर्विकल्प आनन्द का अनुभव रहता है। मात्र आनन्द नहीं परन्तु अनन्त गुण का रस अनुभव में एक साथ वर्तता है। सम्यग्दर्शन होने पर ऐसी दशा होती है। सम्यग्दर्शन के काल में शुद्धोपयोग होता है परन्तु यह शुद्धोपयोग और मैं आत्मा'-ऐसा भेद भी वहाँ नहीं है; अभेद एक वस्तु का ही अनुभव है। मैं शुद्ध हूँ'-ऐसा भी विकल्प अनुभूति में नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ'-ऐसे विकल्प से क्या? उस विकल्प में कहीं आत्मा नहीं; विकल्प से पार होकर जब ज्ञान, स्वसन्मुख एकाग्र हुआ, तब आत्मा साक्षात् अनुभव में आया; तब ज्ञान, इन्द्रियों से और आकुलता से पार होकर आत्मा में झुका। आत्मा अपने यथार्थस्वरूप से अपने में प्रसिद्ध हुआ - ऐसी सम्यग्दर्शन की विधि है। अनादि का तो मिथ्यात्व है, परन्तु जहाँ ज्ञान जागृत हुआ और Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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