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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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रहा सोना, मेरी मुट्ठी में ही है ! उसी प्रकार अनादि अज्ञान से जीव अपने परमेश्वर-आत्मा को भूल गया था, परन्तु श्रीगुरु के वीतरागी उपदेश से बारम्बार समझाये जाने पर उसे अपनी प्रभुता का भान हुआ, सावधान होकर अपने में ही अपनी प्रभुता जानी कि अहो! अनन्त शक्ति की परमेश्वरता तो मुझमें ही है, मैं ही प्रभु हूँ, परद्रव्य अंशमात्र मेरा नहीं; मेरे भिन्नस्वरूप के अनुभव से मैं प्रतापवन्त हूँ-इस प्रकार अपनी प्रभुता को जानकर, उसका श्रद्धान करके तथा उसमें तन्मयरूप से लीन होकर, सम्यक् प्रकार से आत्माराम हुआ.... स्वयं अपने को अनन्त शक्ति सम्पन्न ज्ञायकस्वभावरूप अनुभवता हुआ प्रसिद्ध हुआ। मोह का नाश होकर ज्ञानप्रकाश प्रगट हुआ।
देखो, इसका नाम ज्ञाता-दृष्टा; इसका नाम अनुभवदशा; ऐसी दशा होने पर, स्वयं को स्वयं का अनुभव होता है और स्वयं को उसके आनन्द का पता पड़ता है। आहा! परमेश्वर का जहाँ साक्षात्कार हुआ-उस दशा की क्या बात ! ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा प्रगट हुआ-वह कहता है कि अहो! सभी जीव ऐसे आत्मा का अनुभव करो; सभी जीव आत्मा के शान्तरस में मग्न हो जाओ। शान्तरस का समुद्र स्वयं में उल्लसित हुआ है, वहाँ कहते हैं कि सभी जीव उस शान्तरस के समुद्र में सराबोर हो जाओ।
हे जीवो! तुम अरिहन्त भगवान को पहिचानो और अरिहन्त जैसे अपने आत्मा को पहचानकर उसकी साधना द्वारा तुम भी अरिहन्त बनो।
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