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________________ www.vitragvani.com 28] [ सम्यग्दर्शन : भाग-4 वैसे चैतन्यमूर्ति आत्मा में केवलज्ञानज्योति प्रगट होने की सामर्थ्य है। जैसे दियासलाई में अग्नि होने की सामर्थ्य है, वह आँख से नहीं दिखती परन्तु ज्ञान से ही ज्ञात होती है, वैसे आत्मा में केवलज्ञान होने की स्वभावसामर्थ्य है, वह भी अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही ज्ञात होती है। अपने ऐसे स्वभावसामर्थ्य की प्रतीति और अनुभव करे तो सम्यग्दर्शनरूप पहला धर्म होता है। ऐसे स्वभाव -सामर्थ्य की प्रतीति के बिना चाहे जितने शास्त्र पढ़ जाये, व्रत-उपवास करे, प्रतिमा ले, पूजा - भक्ति करे या द्रव्यलिंगी मुनि हो - चाहे जितना करे, तथापि उसे धर्म नहीं और यह करते-करते धर्म होता नहीं । सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये यह अलौकिक अधिकार है; यह अधिकार समझकर याद रखने जैसा है और अन्दर मन्थन करके आत्मा में परिणमन कराने जैसा है । अपने अन्तरस्वभाव में एकाग्रता से ही सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र प्रगट होते हैं। T जिसने अरिहन्त भगवान जैसे अपने आत्मा को मन द्वारा जान लिया, वह जीव, स्वभाव के आँगन में आया है परन्तु आँगन में आने के बाद अब अन्दर उतरकर स्वभाव का अनुभव करने में अनन्त अपूर्व पुरुषार्थ है । जैसे बड़े राजा-महाराजा के महल के आँगन में आने के बाद फिर सीधा राजा के पास जाने के लिये हिम्मत चाहिए; उसी प्रकार चैतन्य भगवान के आँगन में आने के बाद अन्दर ढलकर चैतन्यस्वभाव का अनुभव करने में अनन्त पुरुषार्थ है; जो जीव वैसा अपूर्व पुरुषार्थ करे, उसे ही भगवान आत्मा का साक्षात्कार Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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