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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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हो गया है। अरे! जो दुःख सुने भी न जायें (सुनते हुए भी आँसू आवे) वे दु:ख सहन कैसे किये जायें? इन दु:खों से अब बस होओ... बस होओ। आत्मा के आनन्द में हमारा चित्त लगा है, इसके अतिरिक्त अन्य कहीं अब हमारा चित्त नहीं लगता; बाहर के भाव अनन्त काल किये, अब हमारा परिणमन अन्दर ढलता है, जहाँ हमारा आनन्द भरा है, वहाँ हम जाते हैं। स्वानुभूति से हमारा जो आनन्द हमने जाना है, उस आनन्द को साधने के लिये जाते हैं।
स्वानुभूति बिना आत्मा को आनन्द नहीं होता। नवतत्त्वों की Dच में से शुद्धनय द्वारा भूतार्थस्वभाव को पृथक् करके, जो शुद्धात्मा की अनुभूति की, उसमें कोई विकल्प या भेदरूप द्वैत दिखायी नहीं देता; एकरूप ऐसा भूतार्थ आत्मस्वभाव ही अनुभूति में प्रकाशित होता है-ऐसी अनुभूति के बिना आत्मा को आनन्द नहीं होता।
जब ऐसी अनुभूतिसहित राजकुमार, संसार से विरक्त होकर माता के समीप आज्ञा माँगे, तब माता भी धर्मी हो, वह कहती है कि भाई! तू सुख से जा और तेरे आत्मा को साध। जो तेरा मार्ग है, वही हमारा मार्ग है। हमें भी इसी स्वानुभूति के मार्ग में आना है।
अहा, वह दृश्य कैसा होगा! -कि जब छोटे से वैरागी राजकुमार आज्ञा माँगे और धर्मी माता इस प्रकार उन्हें आज्ञा देती हों!
यहाँ एक प्रसङ्ग को याद करके गुरुदेव ने कहा
एक व्यक्ति को दीक्षा लेने की भावना जगी; इससे स्त्री तथा माता इत्यादि रोवे और आज्ञा न दे, तब दीक्षा की भावना से उस मनुष्य को बहुत रोना आया, उसकी माँ यह देख नहीं सकी और कहा-भाई! तू रो मत ! मैं तुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दूंगी।
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