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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
_ 'मैं शुद्ध हूँ' – नर-नारकादि जीव के विशेष तथा अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षस्वरूप जो व्यवहार नवतत्त्व हैं, उनसे अत्यन्त भिन्न टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव हूँ; इसलिए मैं शुद्ध हूँ। मैं नवों तत्त्वों के विकल्पों से पार हूँ.... पर्याय में मैं शुद्ध ज्ञायकस्वभाव स्वरूप परिणमित हुआ हूँ, इसलिए मैं शुद्ध हूँ। शुद्ध ज्ञायकभावमात्र अपने आत्मा का मैं शुद्धरूप से अनुभव करता हूँ। नव तत्त्व के भेदों की ओर मैं नहीं ढलता – उनके विकल्पों का अनुभव नहीं करता, किन्तु ज्ञायकस्वभाव की
ओर ढलकर, नव तत्त्वों के विकल्परहित होकर, मैं अपने आत्मा का शुद्धरूप से अनुभव करता हूँ। नवों तत्त्वों के राग-मिश्रित विकल्प से मैं अत्यन्त पृथक् हो गया हूँ; निर्विकल्प होकर अन्तर में एक आनन्दस्वरूप आत्मा का ही अनुभव करता हूँ, इसलिए मैं शुद्ध हूँ। मेरे वेदन में शुद्ध आत्मा ही है। _ 'मैं दर्शन-ज्ञानमय हूँ' – मैं चिन्मात्र होने से सामान्य -विशेष उपयोगात्मकपने का उल्लङ्घन नहीं करता, इसलिए दर्शन -ज्ञानमय हूँ। मैं अपने आत्मा का दर्शन-ज्ञान उपयोरूप ही अनुभव करता हूँ। ___ 'मैं सदा अरूपी हूँ' – स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण जिसके निमित्त हैं - ऐसे ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी, मैं उन स्पर्शादि रूपी पदार्थोंरूप परिणमित नहीं हुआ; इसलिए मैं सदैव अरूपी हूँ। रूपी पदार्थों को जानने पर भी, मैं रूपी के साथ तन्मय नहीं होता; मैं तो ज्ञान के साथ ही तन्मय हूँ, इसलिए मैं अरूपी हूँ। रूपी पदार्थ मुझे अपनेरूप अनुभव में नहीं आते, इसलिए मैं अरूपी हूँ।
- इस प्रकार सबसे भिन्न एक, शुद्ध, ज्ञान-दर्शनमय, सदा
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