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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
श्री गुरु ने मुझसे कहा था - इस प्रकार देव-गुरु-शास्त्रों ने क्या स्वरूप समझाया है, उसका भी यथार्थ निर्णय हुआ।
जिस प्रकार कोई अपनी मुट्ठी में रखा हुआ स्वर्ण भूल गया हो और पुनः स्मरण करे; उसी प्रकार मैं अपने परमेश्वरस्वरूप आत्मा को भूल गया था, उसका अब मुझे भान हुआ। मैंने अपने में ही अपने परमेश्वर आत्मा को देखा... अनादि से अपने ऐसे आत्मा को मैं भूल गया था, मुझे किसी दूसरे ने नहीं भुलाया था, किन्तु अपने अज्ञान के कारण मैं स्वयं ही भूल गया था। अपने आत्मा की महिमा को चूककर, मैं संयोग की महिमा करता था; इसलिए मैं अपने आत्मा को भूल गया था, किन्तु श्रीगुरु के अनुग्रहपूर्वक उपदेश से सर्व प्रकार के उद्यम द्वारा अब मुझे अपने परमेश्वर आत्मा का भान हुआ। श्रीगुरु ने जैसा आत्मा कहा था, वैसा मैंने जाना। ___ - इस प्रकार ज्ञानस्वरूप परमेश्वर आत्मा को जानकर, उसकी श्रद्धा करके तथा उसका आचरण करके, मैं सम्यक् प्रकार से एक आत्माराम हुआ। आत्मा के अनुभव से तृप्त-तृप्त आतमराम हुआ। अब मैं अपने आत्मा का कैसा अनुभव करता हूँ?
मैं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे!
- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से परिणमित मैं अपने आत्मा का ऐसा अनुभव करता हूँ। एक आत्मा ही मेरा आराम है... एक आत्मा ही मेरा आनन्द धाम है... आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान-आचरण करके मैं सम्यक् प्रकार से आत्माराम हुआ हूँ... अब मैं सच्चा आत्मा हुआ हूँ... अब मैं अपने आत्मा का ऐसा अनुभव करता हूँ कि
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