________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-3]
[51
कर, उसकी श्रद्धा करके, महा-उद्यमपूर्वक उसकी सेवा करके उसे रिझाता है। विनय से, भक्ति से, ज्ञान से, सर्व प्रकार से सेवा करके, राजा को रिझाकर प्रसन्न करता है। इसी प्रकार मोक्षार्थी जीव, अन्तर्मुख प्रयत्न से प्रथम तो आत्मा को जानता है और श्रद्धा करता है। ज्ञान द्वारा जो आत्मा की अनुभूति हुई, वह अनुभूति ही मैं हूँ - ऐसे आत्मज्ञानपूर्वक प्रतीति करता है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप में ही लीन होकर आत्मा को साधता है - यह आत्मा को साधने की विधि है।
आबाल-गोपाल, अर्थात् बालक से लेकर वृद्ध तक सबको यह आत्मा ज्ञानस्वरूप ही अनुभव में आता होने पर भी, भेदज्ञान के अभाव के कारण अज्ञानी जीव उसे राग के साथ एकमेक अनुभव करता है। आत्मा को रागमय मानकर, रागवाला ही अनुभव करता है। इस कारण उसे आत्मज्ञान, सम्यग्दर्शन अथवा चारित्र उदयगत नहीं होते। इस प्रकार उसे आत्मा की सिद्धि नहीं होती।
ज्ञानी धर्मात्मा, सम्यक् अभिप्राय से आत्मा को राग से भिन्न अनुभव करते हैं। ऐसे अनुभव के बिना किसी प्रकार आत्मा की सिद्धि नहीं होती; इसलिए पहले अन्तर्मुख पुरुषार्थ द्वारा आत्मा को सम्यक् प्रकार से जानकर, उसका श्रद्धान और अनुभव करना - ऐसा भगवान सन्तों का मङ्गल आशय है। ज्ञानस्वभाव की सेवा, उपासना, आराधना करने का ही सन्तों का उपदेश है । जब पर्याय को अन्तर्मुख करके ज्ञानस्वभाव के साथ एकाकार करे और राग से पृथक् होकर ज्ञान का अनुभव करे, तब ज्ञान की उपासना की गयी कहलाती है।
आत्मा ज्ञानस्वरूपी होने पर भी, ज्ञान की ऐसी उपासना उसने Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.