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________________ www.vitragvani.com 178] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 - ऐसे अनुभव के बिना धर्म नहीं हो सकता और संसार परिभ्रमण का अभाव भी नहीं होता। इसलिए हे भाई! वैराग्यपरिणतिपूर्वक सत्समागम से तत्त्वनिर्णय करके, अन्तर में आत्मानुभव का उद्यम कर। सम्यग्दर्शन के विषय में तो चैतन्य की एकता ही है, उसमें नव तत्त्व के भङ्ग-भेद नहीं हैं। पहले बाह्यदृष्टि से नव तत्त्व बतलाकर, अब अन्तर में ले गये हैं। अन्तर्दृष्टि से देखने पर आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक चैतन्य है और उसकी अवस्था में जो क्षणिक जीव-अजीव आदि तत्त्व के विकल्प हैं, वह विकार है। ज्ञायक चैतन्यस्वभाव स्वयं उस विकार का हेतु नहीं है परन्तु उस विकार का हेतु अजीव है। पर्याय में ज्ञायकपना छूटकर जो विकार होता है, वह जीव का विकार है और उसका निमित्त, अजीव है। जीव में अपनी अवस्था की योग्यता से पुण्य-पाप इत्यादि सात तत्त्व होते हैं और उसमें निमित्तरूप अजीव है। उस अजीव की अवस्था में भी पुण्य-पाप इत्यादि सात प्रकार पड़ते हैं, वे दोनों; अर्थात्, जीव और अजीव की अवस्थाएँ भिन्न हैं। अकेले ज्ञायक में सात तत्त्व नहीं हैं; इसलिए उस स्वभाव के लक्ष्य से सात तत्त्व के विकल्प नहीं होते, परन्तु स्वभाव का लक्ष्य छोड़कर पर्याय के लक्ष्य से भेद के विकल्प होते हैं, उसका निमित्त अजीव है; जीवद्रव्य कहीं उसका निमित्त नहीं है। देखो, उसमें आत्मा की पहचान करने के लिए कहा गया है, वही धर्म की रीति है। अपनी आत्मा में धर्म का प्रारम्भ कब होता है? जैसा आत्मस्वभाव सर्वज्ञ भगवान ने कहा है, वैसा अपना Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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