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________________ www.vitragvani.com 162] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 धर्म की रुचिवाले जीव कैसे होते हैं ? :__ धर्म के लिए सर्व प्रथम श्रुतज्ञान का अवलम्बन लेकर श्रवण -मनन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना कि 'मैं एक ज्ञानस्वभावी हूँ।' मेरे ज्ञानस्वभाव में ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी करने-धरने का स्वभाव नहीं है। इस प्रकार सत् समझने में जो काल व्यतीत होता है, वह भी अनन्त काल में नहीं किया हुआ, ऐसा अपूर्व अभ्यास है। जीव को सत् की ओर की रुचि होती है; इसलिए वैराग्य जगता है और सम्पूर्ण संसार की रुचि उड़ जाती है। उसे चौरासी के अवतार का त्रास लगता है। अरे! यह त्रास क्यों? यह दुःख कब तक? स्वरूप का भान नहीं है और प्रतिक्षण पराश्रयभाव में रचा-पचा रहना, यह भी कोई मनुष्य जीवन है ? तिर्यञ्च इत्यादि के दुःखों की तो बात ही क्या, परन्तु इस मानव को भी ऐसा दुःखी जीवन और मरण के समय स्वरूप के भान बिना असाध्य होकर मरना!' नहीं; इससे छूटने का उपाय करूँ और शीघ्र आत्मा को इन दुःखों से मुक्त करूँ। इस प्रकार संसार का भय होने पर स्वरूप समझने की रुचि होती है। आत्मवस्तु को समझने के लिए जो समय व्यतीत होता है, वह ज्ञान की क्रिया है - सत् का मार्ग है। जिज्ञासुओं को प्रथम ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करना चाहिए। मैं एक ज्ञाता हूँ, मेरा स्वरूप ज्ञान है, वह जाननेवाला है, पुण्य-पाप कोई मेरे ज्ञान का स्वरूप नहीं हैं । पुण्य-पाप के भाव अथवा स्वर्ग-नरकादि कोई मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा का निर्णय करना ही प्रथम उपाय है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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