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________________ www.vitragvani.com (प्रभु, तेरी प्रभुता!) हे जीव! तू कौन है ? इसका कभी विचार किया है ? तेरा स्थान कौन-सा है और तेरा कार्य क्या है, इसकी भी खबर है ? प्रभु, विचार तो कर, तू कहाँ है और यह सब क्या है, तुझे शान्ति क्यों नहीं है? प्रभु! तू सिद्ध है, स्वतन्त्र है, परिपूर्ण है, वीतराग है, किन्तु तुझे अपने स्वरूप की खबर नहीं है; इसीलिए तुझे शान्ति नहीं है। भाई! वस्तव में तू घर भूला है, मार्ग भूल गया है। दूसरे के घर को तू अपना निवास मान बैठा है, किन्तु ऐसे अशान्ति का अन्त नहीं होगा। __भगवान ! शान्ति तो तेरे अपने घर में ही भरी हुई है। भाई! एकबार सब ओर से अपना लक्ष्य हटाकर निज घर में तो देख! तू प्रभु है, तू सिद्ध है। प्रभु, तू अपने निज घर में देख, मत में मत देख। पर में लक्ष्य कर-करके तो तू अनादि काल से भ्रमण कर रहा है। अब तू अपने अन्तर-स्वरूप की ओर तो दृष्टि डाल। एक बार तो भीतर देख। भीतर परम आनन्द का अनन्त भण्डार भरा हुआ है, उसे तनिक सम्हाल कर तो देख। एकबार भीतर तो झाँक, तुझे अपने स्वभाव का कोई अपूर्व, परम, सहज, सुख अनुभव होगा। अनन्त ज्ञानियों ने कहा है कि तू प्रभु है, प्रभु! तू अपने प्रभुत्व की एकबार हाँ तो कह। (-श्री कानजीस्वामी) Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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