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________________ २६२ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित यह स्तोत्र की रचना श्री नंदिषेण मुनि द्वारा की गई है ऐसा माना जाता है । किसीके कहेनेके अनुसार श्री नेमनाथ प्रभुके शासनमें एक नंदिषेणमुनि थे। और कोई कहेता है कि श्री महावीर स्वामीके शासनमें नंदिषेणमुनि थे । श्री शंत्रजयगिरिकी गाउकी प्रदक्षिणाके जाते चिल्लणा तालाब आमने पास श्री शांतिनाथ प्रभ और श्री अजितनाथ प्रभुकी दो देरीओं के सामने होनेसे एकमें चैत्यवंदन करते समय दूसरेको पीठ होती और इसलिए अशातना होती । तब इस स्तोत्रकारने इस स्तोत्रको ऐसी भक्तिभावसे गाया के दोंनो देरीयाँ पासपास जुड गई । A उत्कृष्टकालमें विहरते१७० जिनेश्वरोका वर्ण के अनुसार स्तवन वर वर कनक शंख विदुम म मरकत घन सन्निभं विगत मोहम् . सप्तति शतं जिनानां, सर्वामर पूजितं वन्दे. (१) श्रेष्ठ सुवर्ण, शंख, विद्रुम (परवाला), नीलम, और मेघ जैसे (पीला, श्वेत, रक्त, नील और श्याम) वर्ण वाले, मोह रहित और सर्व देवों से पूजित एक सौ सित्तेर जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ | (१) सांध्य प्रतिक्रमणमें छह आवश्यक पूर्ण होने के बाद 'भगवान्हं आदि पंच परमेष्ठिको वंदन करने से पहले यह सूत्र समग्र संघ बोलता है। (एक एक खमासमण देते भगवान आदिको वंदन करना।) सर्वश्रेष्ठ ऐसे पंचपरमेष्ठि भगवंतोको भाव पूर्ण हृदयसे नमस्कार इच्छा मि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए, - मत्थएण वंदामि (१) भगवान्हं, हे क्षमाश्रमण ! शरीरकी शक्ति सहित और पाप व्यापारको
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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