SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित न्हाणु वट्टण वन्नग, विलेवणे सद्द रूव रस गंधे वत्थासण आभरणे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (२५) १६३ प्रमादाचरण-स्नान, पीठी चोलना, मेहंदी लगाना, चित्रकारी करवाना, लेपन करना, आसक्तिकारक शब्द, रूप, रस, गंध का उपभोग, वस्त्र-आसन तथा अलंकारों में तीव्र आसक्ति से वर्ष संबंधी लगे हुए अशुभ कर्म से मैं पीछे हटता हूँ । (२५) कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि अहिगरण भोग अइरित्ते दंडम्मि अणट्ठाए, तइअम्मि गुणव्वओ निंदे । (२६) अनर्थदंड नामक तीसरे गुणव्रतमें लगे हुए पाँच अतिचार १) कामोत्तेजक शब्द प्रयोग- कंदर्प, २) नेत्रादि की विकृत चेष्टा (सामनेवाले को हास्य या काम उत्पन्न कराना)कौत्कुच्य, ३) अधिक बोलना, वाचालता, ४) हिंसक साधनों को तैयार रखना, जैसे ऊखल के पास मूसल रखना, ५) भोग के साधनों की अधिकता आदि के कारण लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ । (२६) (सामायिक व्रतके अतिचार) तिविहे दुप्पणिहाणे, अण वट्ठाणे तहा सइ विहूणे समाइय वितह कए, पढमे सिक्खावए निंदे । (20) (१-२-३) मन-वचन-काया के दुष्प्रणिधान ( अशुभ प्रवृत्ति), ४) सामायिकमें स्थिर न बैठना - चंचलता - अनादर सेवन तथा ५) सामायिक समय का विस्मरण, यह पाँच अतिचार प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक में लगे हों, उनकी मैं निंदा करता हूँ । (२७)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy