SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित १५९ चौथे मैथुन अणु-व्रत में नित्य परस्त्री गमन से निवृत्ति में अप्रशस्त भाव और प्रमाद के कारण यहां लगे अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हूँ ।(१५) अविवाहिता के साथ गमन करने से, अल्प समय के लिये रखी स्त्री के साथ गमन करने से, काम वासना जाग्रत करनेवाली क्रियाओं से, दूसरों के विवाह कराने से और विषय भोग में तीव्र अनुराग रखने से वर्षभर में अणुव्रत में लगे सर्व अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हूँ ।(१६) (परिग्रहके अतिचार) इत्तो अणुव्व पंचमंम्मि, आयरिअम प्पसत्थम्मि; परिमाण परिच्छेए, इत्थ पमाय प्पसंगेणं । (१७) धण, धन्न, खित्त, वत्थु, रुप्प, सुवन्ने, अ कुविअ परिमाणे दुपए चउप्पयंमि य, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (१८) अब पांचवें अणु-व्रत में परिग्रह के परिमाण में अप्रशस्त भाव और प्रमाद के कारण यहाँ लगे अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हूँ । (१७) धन, धान्य, जमीन, मकान, चांदी, सोना, अन्य धातु, द्विपद और चतुष्पद के परिमाण में वर्षभर में लगे सर्व (अतिचारों) का में प्रतिक्रमण करता हूँ ।(१८) (आने-जानेके नियमोका अतिचार) गमणस्स उ परिमाणे, दिसासु उड्डुं अहे अ तिरिअं च । वुड्ढी सइ अंतरद्धा, पढमम्मि गुणव्वए निंदे । (१९)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy